Saturday, April 24, 2010

जिनसे तेरा दामन उलझे...

साहिल को अपनाना हो तो तूफ़ानों से हाथ मिलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

किसे पता सुनसान सफर में कितने रेगिस्तान मिलेंगे।
कौन बताए किस पत्थर के सीने से झरने निकलेंगे।
प्यास अगर हद से बढ़ जाए आँसू पीकर काम चलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

मंज़िल तक तो साथ न देंगे आते जाते साँझ सवेरे।
अपनी-अपनी चाल चलेंगे कभी उजाले कभी अँधेरे।
रातें राह दिखाएँगी तू बस छोटा-सा दीप जलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

ज़ोर-शोर से उमड़-घुमड़ कर मौसम की बारात उठेगी।
धीरे-धीरे रिमझिम होगी लेकिन पहले उमस बढ़ेगी।
सावन जम कर बरसेगा दो पल झूलों की बात चलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।

घड़ी बहारों की आने दे भर लेना चाहत की झोली।
आवारा पागल भँवरे से मस्त पवन इठलाकर बोली।
कलियों का मन डोल उठेगा ज़रा सँभल कर डाल हिलाना।
जिनसे तेरा दामन उलझे
उन काँटों में फूल खिलाना।...

- मदन मोहन अरविन्द.

2 comments:

  1. "रातें राह दिखाएंगी तू बस छोटा सा दीप जलाना"
    इस कविता के शब्द हृदय की गहराई में उतरते चले जाते हैं। बार-बार पढने के बाद भी तृप्ति नहीं होती है।

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  2. बिलकुल ठीक कहा आपने डॉ साहब!

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