Saturday, April 24, 2010

मेरे घर भी कभी आओ अल्लाह मियां!

नीले गगन पर बैठे कब तक चाँद सितारों से झांकोगे?
पर्वत की ऊंची चोटी से कब तक दुनिया को देखोगे?
कब तक दुनिया और आदर्शों के ग्रंथों में आराम करोगे?

मेरा छापर टपक रहा है बन कर सूरज इसे सूखाओ.
खली है आटे का कनस्टर, बन कर गेंहू इसमे आओ..
और टूट गया है माँ का चश्मा, बन कर शीशा इसे बनाओ...

गुमसुम है आँगन में बच्चे, बन कर गेंद इन्हे बहलाओ
शाम हुई, चाँद उग आया..हवा चलाओ...हाथ बटाओ अल्लाह मियां....

मेरे घर भी कभी आओ अल्लाह मियां ....!!!!!!!!!!!!!

- अज्ञात.

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