Saturday, April 24, 2010

भीगे अख़बार-सा मैं.

भीगे अख़बार-सा मैं,
पड़ा रहा, पड़ा ही रहा
पढ़े जाने की ललक लिए
लेकिन न उठाया किसी ने
हो आशंकित न हो जाऊँ
तार-तार
प्रतीक्षा में नव किरणों को
सोख लेने की
लिए शब्दों के ज़खीरे
पड़ा रहा, पड़ा ही रहा

अपने में समेटे,
कुछ गुज़रे कल, कुछ बहके पल
कुछ रेखाएँ रंगीन, कुछ श्वेत औ' श्याम
कुछ योजनाएँ, कुछ घोषणाएँ
कुछ शुभ कामनाएँ, कुछ संवेदनाएँ
समेटे हुए आँचल में अपने
पड़ा रहा, पड़ा ही रहा
भीगे अखब़ार-सा मैं

- संजय पुरोहित.

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