खैर तो सबसे मिली, मांगे न मांगे, ए वली, (खैर = भीख, वली = औलिया)
तेरे घर से मगर आये, तो गज़ल होती है!
जून की तपती दुपहरी में झुलसते चलते,
कोई शरबत जो दिखाए, तो गज़ल होती है!
बड़ी मुश्किल से हो सोया जो तेरा लख्त-ए-जिगर, (लख्त-ए-जिगर = जिगर का टुकड़ा, बच्चा)
उसे इक छींक जगाए, तो गज़ल होती है!
सुभा हो शाम हो, पढ़ते रहो तुम जंग-ओ-जहद,
परचा विज्ञान का आये, तो गज़ल होती है!
उमर लिहाज औ कपडे, किये खिजाब से गुल, (खिजाब: रंग, मेंह्न्दी)
तब भी वो 'चाचा' बुलाए, तो गज़ल होती है!
एक बस तुम हो, औ वो हों, चले जब 'लिफ्ट' का सफर,
बिना आवाज़ बू आये, तो गज़ल होती है!
- प्राश 'बुडबक्क' ट्राश्.
५/१७/२०११.(Released under GNU Public License. Readers may distribute it, but must share any modifications with the original author.:-)
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